शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

राजेन्द्र सिंह भण्डारी जी की कविता

         उज्याड़ (राजेंद्र सिंह भंडारी)

कैक छू रे बल्द सफ़ेद,  टोड़ि भेर बाड़ लगो
समावना किलै नां क तुम, फिर उज्याड़ लगो

सुणो रे भगुली आमक छू, या सरुली मैक छू
हाथ जोड़नूं रे  हकै ल्याओ, ऊ बल्द जैक छू

तुमुहें ना य बल्द हें  कौनूं, हैक भाग पुरि जो
जैक लै छू रे ह बल्द, जल्दी से भ्योव घुरि जो

एक बेलुक लै य बल्दल,  बाण झन पाया तुम
बाई बोई ह उज्याड़िक, खाण  झन पाया तुम

ओ इजा कथां  मरूं, बल्दकि  कमर  टूटि जो
निकलि जान प्राण बल्दा, त्यर ख्वर फुटि जो

बौली भ्यार  बटि पोरूँ,  हुड़की  बौल लगै र
पाणी चारी देखो धें इजा, उदुक डबल बगै र

को मर ह बल्दक, हुनिं कसिक यूँ धान आब
खवौंल के नांतिनों कें निकलें य ज्यान आब

कान नि बुड़ों गुसें कें,  तेरि  गुस्याँण मरि जो
लागि जो मेरि गाई बल्दा, तिमें बांण पड़ि जो

कतुक बेशर्म छा रे, तुम भ्यार औना किलै ना
कैक छू क ह काटण, मिकें  बतौना  किलै ना

झन सुणिया रे नि सुणना, मी लै घर जानूं आब
झोई टपकी पकौनूं आज, और भात खानूं आब

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