शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

अशोक कुमार पंत जी की कविता

🥺 किलै ? कांहुंणि ? जाणौछा 🤔
          (उत्तराखंड कून लागिरौ )

किलै हो कांहुणि लाग् रौछा सरासर बाट्  ?
ज्यै लागणौं कि तुमनकैं  पुरुखौंक् माट् ?
लाख, द्वी लाख दस-बीस लाख छोड़ि ,
कांहुंणि ? जाणौंछा दौड़ा दौडि ...
जांणीं भरिबै धरिे राखौ तुमन हुं सुनुक् भकार .…
जाणीं तुम बणिगौछा ततुकै लकारि……
कि जै धरि राखौ शहरों में बताओ ध्यैं जरा...
एक बार म्यार तर फरकि चाऔ ध्यैं जरा…
तुमार जाते ही खेति पाति है जालि बाँजि..
गोरु-भैंस-दै-दू्ध-नौनि-छाँ पट्ट हैजालि काँजि .…
कि सोचणरौछा परदेश में डबलनोंक् खान मिलल् कै ?
पत्त चलि जाल जब र् वाट कमाला भान् माँजि- माँजि ।
पढ़ी घोघीं त थ्वाड़ मैस् ले बण़ि सकनीं ।
अपन खुटान लक् लकाट करिबै ले ठाड्  है सकनी ।
हिम्मत करिबै जसिक तसिक पेट भरि सकनीं ।
आमदनि अठनि खर्च रुपांय किराय् भरि मरि- मरि ले जी सकनीं ।
भौतै मुश्किल छ प्वाथा डबल कमूंन..…
परदैशकि शान शौकत में नानतिन पढ़ूंन- लेखूंन..
ना घरक् न घाटक्  रौलै...
ज्यूंन छनां तक ले प्वाथा..….बिन ठाठ्-बाटकै रौलै ।
न परदेश तेर् होलोैे न तू अपन माटिक्वै रौलै….
अंत में खोर पकड़िबे कैक मुख थैं बैठी रोल्वै ..
समझदारी देखौ प्वाथा..अपन् ईज- बौज्यू कैं चा ।
उनुंल कसिकै काम करौ कसिकैं तुमन दुधाक् भाल् लगा । 
अपन खै न खै जसिकैं ले भै जतुकैं ले पढ़ा-लिखा ..
ठुलाठुल् परिवार हैबेर ले सबौंकै एक बट्यां ।
कि नहां गौं पिन सब त छू
ठंडी हाव ठंडो पाणि
फल फूलनकि बहार
ताज् ताज् साग पात शुद्ध आहार 
हरीं भरीं डान् कान् सुर सुर बयाल्
कतू भल छ मुलुक मायालो
हिम्मत कर धैर धर
गाड़ खेतन चा  गोरु भैंस पाल
एक ब्यू बोबेरन् त देख ..…..।
अहा.…..
साग पात धिनालि पानि
घाम बैठि खा नींबू सानि
एक ब्यू कतू नाज दिछ
 पुर एक्कै गड़-खेत  ले भकार भरि दिछ
लगन लगौ बानर सुअर हकौ
तेरि मिहनत रंगत ल्यालि
मन में सकून दी जालि
हाथ में हाथ धरीं नीं बैठ
ज्यून हैबेर ले मरीं नीं बैठ
सब हैबेर ले ततू नीं ऐंठ
थ्वाड़ भलि बातन कैं मन में गैंठ..…
अपन हाथ खुट भड़कौ जरा...
बांजा खेतन् हुं आंखान् सरकौ जरा….
ध्यानले सोच समझ कि भल कि नक छू..
 त्वेकैं अपन खेती पाति सुधारनाक् पुर हक छू ।
मन चित लगौ.. आलकस भजौ.…
खालि बैठि खोरो नैं खज्यौ.. ..
एक बार जै मन में ठानि ल्हिलै….
नाज-पानिल अपन भकार भरि ल्हिलै…. 
पुर जाग तेरि हाम होलि नौं होलो.. 
सांचि कूं प्वाथा सबौंहे भल तेरो गौं होलो..
तू घरहूं अ..मैंकैं सुधारि-संवारि नयीं ब्योलि जस बनौ.…
अ प्वाथा.…अब घरहूं अ….…।

अशोक कुमार पंत
   ( अभ्यासी )

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