गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

अशोक कुमार पंत जी की कविता

😟 पढ़ीं - लेखीं बिरोजगार 😟

आर गयूं  पार गयूं...
गाड़ - गध्यार गयूं..
इसीकैं डोई रयूं..
सबहूं बौई रयूं..
    कि करूं हो तौई रयूं..
 दाज्यू..मीं बिरोजगार भयूं ।

यां चां.… कभै वां...
दौड़ि जां.. धां धां...
आजि तलक त मिली नां..
नौकरी ,  हमुंहूं छई कां... 
     ज्ञानोक् त मीं भंडार भयूं.….
  दाज्यू.. मीं बिरोजगार भयूं ।

एकल कौ एक काम कर..
कर्जाक् थ्वाड़ इंतजाम कर.
नानीं... ले के दुकान कर..
द्वी डबल आला घर ।
       कर्ज लीबेर कर्जदार भयूं ..
      दाज्यू... मीं बिरोजगार भयूं ।

कर्जाक आगोश में..
डुबि गयूं होश नैं..
मन चित में जोश नैं..
कैकैं  द्यूं दोष मैं..
        तिरसंकु जस लटकि गयूं.…
     दाज्यू .. मीं बिरोजगार भयूं ।

आन नैं के मान नैं..
कैं ले जाऊंत के सम्मान नैं..
ठुलि के पछ्याण नैं..
म्यार तर क्वे चाण नैं ..
      अटकि जस मझधार गयूं..
    दाज्यू.. मीं बिरोजगार भयूं ।

म्यार जतू ले यार छन्...
सब्बै दुकानदार छन्..
माँख ले नीं ऊंन दुकान पन्..
क्याले चुकूं ब्याज धन् ।
    मीं दुनीं में भार भयूं..
    दाज्यू ...मीं बिरोजगार भयूं ।

अशोक कुमार पंत
  ( अभ्यासी )

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