शनिवार, 17 दिसंबर 2022

तारा पाठक जी की कविता

नदी को गाड़ बेशक बोल लेना
लेकिन गाड़ को नदी मत बोलना

क्योंकि गाड़ नदी बन सकती है 
ऊंचे पहाड़ों से बह कर

नदी गाड़ नहीं बन सकती
 मैदानों में रह कर 

गाड़ चट्टानों में सिर टकराकर
भी जीवंत है बेगवान है

नदी समतल में भी
शिथिल सी बेजान है

गाड़ का अपना सुसाट
 वाला संगीत है तराण है

नदी का शिशकियों वाला
अधमरा सा पराण है

गाड़ ही गंगाजल 
नदी तक पहुंचाती है

बड़प्पन भी ऐसा कि _
अपने को मिटा नदी में समा जाती है

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