बूबू
बूबू अब सौ साल के होंगे
सारा जीवन पहाड में रहे
लाल चावल का भात
भाटों की चुटकाँणी
तम्बाकू की फर्सी
याद करते हैं
वो अब हल्द्वानी में रहते हैं, रोज़ दोपहर वो छत पर जाते हैं
पहाडों की उँची- और उँची शृंखलाओं को ताकते हैं
पूछा, बूबू क्या देखतो हो
अरे , वो जो पहाड है न,
वहाँ था रे चार नाली का खेत
खूब चावल , भट, मूली ,गढेरी होने वाली ठहरी ...
पूछा, यहाँ से कहाँ दिखेगा बूबू !
क्यों रे, वहाँ से हम देखते थे हल्द्वानी को...
बूबू वहाँ से सब साफ़-साफ़ दिखता है, हवा जो हुई साफ़...
कैसा समय आ गया रे ,
कौन आता था यहाँ भाभर में घाम खाने,
बुखार और उमस में मरने को...
ये हल्द्वानी पहाड में क्यों नहीं रे नतिया,
पहाड का आदमी पहाड में रहता...
अब क्या जवाब दूँ बूबू को कि पहाड तो भेंट चढ़ गया निकम्मे हाकिमों के हाथ..
ये जो टूटा हुआ पहाड है, बिखरा पड़ा है मैदानों में...
अब समेटे तो समेटे कौन,
जिनको समेटना है, वो खुद मैदानों में बिखरे पडे हैं।
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