करहू अपण सपन सकार करन
भीड़-भाडेको मे ऐबे बन बैठी छ लाचार!
शहरो में जन-जन गली गली भटकनी
सपन टूट मन भटक जा
शहर-शहर नि पा सकू मंजिल
सदचार खो चुक गो
हैं भीड़-भाड़ में ऐबे बन बैठी छो
लाचार
निज स्वार्थपूर्ति में दिखियो सब
अब कौ करो भल
उपकार लिजी तरसरि शहरो में
आपणपन का मिलो या का
अपण ज प्यार का मिलू या शहरो मै
अरमानोंकी फाँचि लाद फिररो शहर मा
भटक रि बेरोजगार खो चुक गी उ सपण
भीड़-भाड़ में ऐबै बन बैठि छ लाचार!
कविता देव सती
पपनैपुरी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें