मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

गौ घर बार

गौ घर बार छोड़ शहरो हू गाय

करहू अपण सपन सकार करन

 भीड़-भाडेको मे ऐबे बन बैठी छ लाचार!

 शहरो में जन-जन गली गली भटकनी

 सपन टूट मन भटक जा

 शहर-शहर नि पा सकू मंजिल

 सदचार खो चुक गो

हैं भीड़-भाड़ में ऐबे बन बैठी छो
 लाचार

निज स्वार्थपूर्ति में दिखियो सब

अब कौ करो भल

 उपकार लिजी तरसरि शहरो में

 आपणपन का मिलो या का

 अपण ज प्यार का मिलू या शहरो मै

अरमानोंकी फाँचि लाद फिररो शहर मा

भटक रि बेरोजगार खो चुक गी उ सपण

 भीड़-भाड़ में ऐबै बन बैठि छ लाचार!

कविता देव सती 
पपनैपुरी

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