शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

अशोक कुमार पंत जी की कविता

🥺 किलै ? कांहुंणि ? जाणौछा 🤔
          (उत्तराखंड कून लागिरौ )

किलै हो कांहुणि लाग् रौछा सरासर बाट्  ?
ज्यै लागणौं कि तुमनकैं  पुरुखौंक् माट् ?
लाख, द्वी लाख दस-बीस लाख छोड़ि ,
कांहुंणि ? जाणौंछा दौड़ा दौडि ...
जांणीं भरिबै धरिे राखौ तुमन हुं सुनुक् भकार .…
जाणीं तुम बणिगौछा ततुकै लकारि……
कि जै धरि राखौ शहरों में बताओ ध्यैं जरा...
एक बार म्यार तर फरकि चाऔ ध्यैं जरा…
तुमार जाते ही खेति पाति है जालि बाँजि..
गोरु-भैंस-दै-दू्ध-नौनि-छाँ पट्ट हैजालि काँजि .…
कि सोचणरौछा परदेश में डबलनोंक् खान मिलल् कै ?
पत्त चलि जाल जब र् वाट कमाला भान् माँजि- माँजि ।
पढ़ी घोघीं त थ्वाड़ मैस् ले बण़ि सकनीं ।
अपन खुटान लक् लकाट करिबै ले ठाड्  है सकनी ।
हिम्मत करिबै जसिक तसिक पेट भरि सकनीं ।
आमदनि अठनि खर्च रुपांय किराय् भरि मरि- मरि ले जी सकनीं ।
भौतै मुश्किल छ प्वाथा डबल कमूंन..…
परदैशकि शान शौकत में नानतिन पढ़ूंन- लेखूंन..
ना घरक् न घाटक्  रौलै...
ज्यूंन छनां तक ले प्वाथा..….बिन ठाठ्-बाटकै रौलै ।
न परदेश तेर् होलोैे न तू अपन माटिक्वै रौलै….
अंत में खोर पकड़िबे कैक मुख थैं बैठी रोल्वै ..
समझदारी देखौ प्वाथा..अपन् ईज- बौज्यू कैं चा ।
उनुंल कसिकै काम करौ कसिकैं तुमन दुधाक् भाल् लगा । 
अपन खै न खै जसिकैं ले भै जतुकैं ले पढ़ा-लिखा ..
ठुलाठुल् परिवार हैबेर ले सबौंकै एक बट्यां ।
कि नहां गौं पिन सब त छू
ठंडी हाव ठंडो पाणि
फल फूलनकि बहार
ताज् ताज् साग पात शुद्ध आहार 
हरीं भरीं डान् कान् सुर सुर बयाल्
कतू भल छ मुलुक मायालो
हिम्मत कर धैर धर
गाड़ खेतन चा  गोरु भैंस पाल
एक ब्यू बोबेरन् त देख ..…..।
अहा.…..
साग पात धिनालि पानि
घाम बैठि खा नींबू सानि
एक ब्यू कतू नाज दिछ
 पुर एक्कै गड़-खेत  ले भकार भरि दिछ
लगन लगौ बानर सुअर हकौ
तेरि मिहनत रंगत ल्यालि
मन में सकून दी जालि
हाथ में हाथ धरीं नीं बैठ
ज्यून हैबेर ले मरीं नीं बैठ
सब हैबेर ले ततू नीं ऐंठ
थ्वाड़ भलि बातन कैं मन में गैंठ..…
अपन हाथ खुट भड़कौ जरा...
बांजा खेतन् हुं आंखान् सरकौ जरा….
ध्यानले सोच समझ कि भल कि नक छू..
 त्वेकैं अपन खेती पाति सुधारनाक् पुर हक छू ।
मन चित लगौ.. आलकस भजौ.…
खालि बैठि खोरो नैं खज्यौ.. ..
एक बार जै मन में ठानि ल्हिलै….
नाज-पानिल अपन भकार भरि ल्हिलै…. 
पुर जाग तेरि हाम होलि नौं होलो.. 
सांचि कूं प्वाथा सबौंहे भल तेरो गौं होलो..
तू घरहूं अ..मैंकैं सुधारि-संवारि नयीं ब्योलि जस बनौ.…
अ प्वाथा.…अब घरहूं अ….…।

अशोक कुमार पंत
   ( अभ्यासी )

बच्चों को अंग्रेजी के साथ कुमाउनी भी सिखायें श्रीविनोद पंत जी की कविता

बच्चों को कुमाउनी में इगलिस ऐसे भी पढाई जा सकती है -

ए फार एप्पल , बी फार बौय 
खुश्याणि खाला लागलि झौय | 
सी फार कैट डी फार डौल 
झकड करला मैंस कि कौल |
ई फार एलीफेन्ट एफ फार फिश 
सूरज निकलौ खुल ग्या दिश् |
जी फार गर्ल एच फार हैन 
झ्वाट बटी  निकालो पैन |
आई फार इंकपाँट जे फार जग 
हाव् चलणै द्वार  ढक |
के फार काइट एल फार लैग
झन करिया कैकै रग् 
एम फार मंकी एन फार नोज 
 एडिसनलि करी बल्ब कि खोज | 
ओ फार ओरेन्ज पी फार पटैटो 
ट्याड म्याड बाट भलीकै हिटो |
क्यू फार क्वीन आर फार रैबिट 
पाज्यूं कें गध्यारन  खित् |
एस फार स्नैक टी फार टौय 
लूण पिसो झौय मौय |
यू फार अम्ब्रैला वी फार वैन 
हिमुलि  गालन सुनै चैन |
डब्ल्यू फार वाच एक्स फार एक्स मस 
जस ब्वेला काटला तस |  
वाई फार याक जैड फार जेबरा 
याद करो ईसकूल जैबेरा ||
#विनोदपन्त_खन्तोली

#जंवाई
  

इस चराचर जगत में अगर कोई पद सबसे बडा है तो वो है जंवाई का पद और कोई सर्वोच्च सिंहासन है तो वो है जवांई  होना और कोई मान प्रतिष्ठा की पराकाष्ठा है तो वो भी जंवाई ही है | 
आज  लडकों को जीवनसंगिनी नही मिल पा रही है और उनका यह दु:ख इसलिए है कि उन्हें जंवाई बनने का परमसुख नही मिल पा रहा है | उन्हें तरह तरह की परीक्षा और योग्यताओ के मापदण्डों पर परखा जा रहा है | एक युवा के लिए ब्याह करना आईएएस बनने से अधिक कठिन हो गया है   यदि मैं अपने समय को याद करूं तो हमारे समकालीन युवाओ का विवाह बडी आसानी से हो जाया करता था योग्यता सिर्फ इतनी अर्जित करनी होती थी कि आप दिल्ली या किसी शहर रिटर्न हों और आपके पिताजी या मंगजोगी ( मध्यस्त या बिचौलिया ) वाकपटुता में कुशल हों |  भलो धर बर छ कहना ही पर्याप्त था . 
अब जब विवाह हो गया तो सभी ससुरालियों को अपना जंवाई राजदीवान लगता था | सबसे ज्यादा तो हमारी पत्निया ओच्छ्या जाती थी हमको पाकर , चूंकि गांव की सीधी साधी लडकियां होती थी तो उनके सपनो में राजकुमार आता ही नही था | विवाह या पति के नाम पर तो वो शरम से अकेले में भी  लाल हो जाती थी |  सहेलियों में भी कहा करती मैं शादी ही नही करूंगी पर जब मां बाप ब्या ठरयाते तो तुरन्त मान जाती थी , कैसा है क्या है ये पसन्द है नही है या यूं कहिये कि लडके को नापसन्द भी कर सकते हैं ये उन बेचारियों को मालूम ही न था |    शादी के बाद दूल्हा जैसा भी निकला उसके सांचे में ढल जाना ही उनकी नियति थी | 
विवाह के दिन तो दूल्हा मुकुट , हार , माला , झालर , कोट पैन्ट मुंह में ऐपण जैसे डिजाइन जिन्हे कुरमू कहते थे  में ठीक ही लगता था |  असली पता तो दुरगूण के दिन चलता था कि पैकिग के भीतर माल कैसा है ? 
पहली बार ( दुरगूण )  ससुराल जाते ही गांव वाले भी जंवाई को देखने पहुंच जाते थे ,  लडकी का परिवार तो जंवाई को पाकर धन्य हो जाता था | 
लडका दुबला पतला सिंट जैसा हो या गोल मटोल गुबर के थोपे जैसा या काला उल्टे तवे जैसा हो , मुह पटपटाया जैसा हो या ढडुवे जैसे गाल वाला , लम्बा लुट्यास जैसा हो या साढे तीन फिट का बौना सास को जंवाई मे कोई कमी नजर नही आती थी |  मुझे याद है जब मैं ससुराल गया तो मेरे बयालीस किलो के धागे जैसे शरीर को देखकर भी मेरे ससुराल के पडोसियों ने प्रोटोकाल के तहत मेरी सास से कहा था - लाआआआ भला जवैं ऐरीन .. तो मेरी सास के चेहरे की चमक ऐसी हो गयी थी मानो हिमालय पर सूरज की पहली किरण पड रही हो | वो गर्वित संतोष से बोली थी -  होय भालै छन पैं , दुबाव पताव छन पर छाजन छन | ढ्योर कैलै बाकि लाग भलै कम लाग कि फरक पडौं .
काले कलूटे जंवाई को भी सासू मांऐ कहती थी -  जरा कलसुवाल छन , पर नाक् नि देखीन , रसील काल् छन .. किसन भगवान नि छिये काल् ? 
गोल मटोल बेडोल को कहा जाता - रंग रूप तो भगवानक दिई भै , बच रई चैनन . 
अगर जंवाई मोटे मिल गये तो कहा जाता था - शरीर मोट् छ पर  छाव् छरबट गजब छन ,  सब कामाक भाय , घर पन ले एक मिनट खालि नि बैठन बल | 
ठिगने या बौंने जवाई को कहा जाता था - अरे भला भाल गुदुक जास छन , चार मैसन में बैठी घच्च कन  कतुक भाल् देखीनी | 
बिलकुल पटपटाऐ चुतरौव जैसे गालो वाले की तारीफ कुछ यूं की जाती थी - अरे मैसाक् गुण देखण चैनन  आब ब्या हैगो सन्तोषलि मोटै जाल् | 
अगर जंवाई नकचढा , तुनकमिजाज हो तो कहा जाता था - खर आदिम भाय , लोपड चापड भल नि लागन तनन | 
अगर जंवाई बैचाल टाईप , बिलकुल लाटा पप्पू  आ गया तो सासू मां लोगो को बताती - हमार जवैं धरती भाय धरती , धीर गम्भीर , सिद इतुक कि गोठ नि बादा भितरै बाद | 
अगर दिल्ली रिटर्न जवाई बेरोजगार निकल गया तो भी चिन्ता की बात नही , सास ससुर के पास इसका भी हल था -  अरे चेलि कैं पालि हालाल , भुक ज के मरण दयाल , खेति पाति छनै छ , चेलि में जै हुनर होलौ कर खालि कारबार . 
   मतलब सास ससुर के लिए जवाई में कोई कमी नही होती थी |  साली का तो कहना ही क्या ? उसके भिन्ज्यू गांव की हरुलि परुलि , मीना , गोबिन्दी सबके भिन्ज्यू से ज्यादे स्मार्ट हुए | 
सच कह रहा हूं हमारे जिन अवगुणो की वजह से गांव वाले हमें चिढाते थे वो ससुराल आते ही ऐसे गुणो में परिवर्तित हो जाऐगे हमने सोचा तक नही था |  काले रंग की वजह से कई या कल्लू कहे जाने वाले लडके को जब ससुराल में  रसीला काला कहा जाता तो तब पता चलता कि काले रंग का एक शेड ऐसा भी होता है |  जिस पतले शरीर के कारण हमें लुतरा या लुत्ती कहा जाता था ससुराल जाकर पता चला कि हम छाजन हैं | 
मोटे को खुद नही पता कि वो छाल् छरबट है | जिस बेरोजगारी का तंज मां बाप हर समय मारते थे और कहते थे कि आगे जाकर भूखा मरेगा उसे सास के बचनो से पता लगता था कि वो तो पत्नी को भी पाल लेगा वो भी बिना कुछ करे धरे | जिस बौने ठिगने दिनेश को घर गांव में दिन्नू ठिन् कहते थे उसे क्या पता था कि वो चार आदमियोॆ मेॆ बैठा जमता है |
और तो और लाटा या बैचाल जंवाई भी ससुराल जाकर धीर गम्भीर धरती टाइप निकलता है इससे सुखद आश्चर्य और क्या होगा ? 
इसीलिए मै बार बार दोहराता आ रहा हूं कि दुनिया की सबसे महान उपलब्धि जंवाई बनना है |  इसलिए हे युवाओ ! उठो , सघर्ष करो और जवाई बनने का लक्ष्य निर्धारित करो इसे पाकर रहो | मेरी शुभकामनाऐ तुम्हारे साथ हैं | 
#विनोदपन्त_ की कलम से

राजेन्द्र सिंह भण्डारी जी की कविता

         उज्याड़ (राजेंद्र सिंह भंडारी)

कैक छू रे बल्द सफ़ेद,  टोड़ि भेर बाड़ लगो
समावना किलै नां क तुम, फिर उज्याड़ लगो

सुणो रे भगुली आमक छू, या सरुली मैक छू
हाथ जोड़नूं रे  हकै ल्याओ, ऊ बल्द जैक छू

तुमुहें ना य बल्द हें  कौनूं, हैक भाग पुरि जो
जैक लै छू रे ह बल्द, जल्दी से भ्योव घुरि जो

एक बेलुक लै य बल्दल,  बाण झन पाया तुम
बाई बोई ह उज्याड़िक, खाण  झन पाया तुम

ओ इजा कथां  मरूं, बल्दकि  कमर  टूटि जो
निकलि जान प्राण बल्दा, त्यर ख्वर फुटि जो

बौली भ्यार  बटि पोरूँ,  हुड़की  बौल लगै र
पाणी चारी देखो धें इजा, उदुक डबल बगै र

को मर ह बल्दक, हुनिं कसिक यूँ धान आब
खवौंल के नांतिनों कें निकलें य ज्यान आब

कान नि बुड़ों गुसें कें,  तेरि  गुस्याँण मरि जो
लागि जो मेरि गाई बल्दा, तिमें बांण पड़ि जो

कतुक बेशर्म छा रे, तुम भ्यार औना किलै ना
कैक छू क ह काटण, मिकें  बतौना  किलै ना

झन सुणिया रे नि सुणना, मी लै घर जानूं आब
झोई टपकी पकौनूं आज, और भात खानूं आब

भूलते जा रहे हैं वैदिक कैलेंडर, रट लीजिए।
हमारा नववर्ष चैत्र प्रतिपदा से आरंभ होता  है 
1. चैत्र 
2. वैशाख
3. ज्येष्ठ 
4. आषाढ़ 
5. श्रावण 
6. भाद्रपद 
7. अश्विन 
8. कार्तिक
9. मार्गशीर्ष 
10. पौष
11. माघ 
12. फाल्गुन 

चैत्र मास ही हमारा प्रथम मास होता है, चैत्र मास के शुक्ल पक्ष को नववर्ष मानते हैं। चैत्र मास अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार मार्च-अप्रैल में आता है, चैत्र के बाद वैशाख मास आता है जो अप्रैल-मई के मध्य में आता है, ऐसे ही बाकी महीने आते हैं l फाल्गुन मास हमारा अंतिम मास है जो फरवरी-मार्च में आता है, फाल्गुन की अंतिम तिथि से वर्ष की सम्पति हो जाती है, फिर अगला वर्ष चैत्र मास का पुन: तिथियों का आरम्भ होता है जिससे नववर्ष आरम्भ होता है।

हमारे समस्त वैदिक मास (महीने) का नाम 28 में से 12 नक्षत्रों के नामों पर रखे गये हैं।

जिस मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर होता है उसी नक्षत्र के नाम पर उस मास का नाम हुआ।

1. चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास
2. विशाखा नक्षत्र से वैशाख मास
3. ज्येष्ठा नक्षत्र से ज्येष्ठ मास
4. पूर्वाषाढा या उत्तराषाढा से आषाढ़
5. श्रावण नक्षत्र से श्रावण मास 
6. पूर्वाभाद्रपद या उत्तराभाद्रपद से भाद्रपद 
7. अश्विनी नक्षत्र से अश्विन मास 
8. कृत्तिका नक्षत्र से कार्तिक मास 
9,. मृगशिरा नक्षत्र से मार्गशीर्ष मास 
10. पुष्य नक्षत्र से पौष मास 
11. माघा मास से माघ मास
धन्य थे हमारे पूर्वज,🙏🏻
12. पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी से फाल्गुन मास

मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

श्री विनोद पंत जी की कविता

कम्पनी वाल कर दिनी अणकसी काव्  ,
तीन रुपैं चिप्स में  भरनी सात रुपै हाव् | 
रैपर में काजू बदाम भीतर ढूढण पडौं ,
दाज्यू इनार चक्कर में खिम्मू दुकानदार कैं जै सुणण पणौ ||
                    ------------
हर तीन  म्हैण में रेट बढै दिनन 
हर तिसार दिन भीतरक माल घटै दिनन | 
हात पुजन नै खाप्  खाली पैकेट सुंघण पडौं ,
दाज्यू इनार चक्कर में खिम्मू दुकानदाल कैं जै सुणण पडौं ||
                   ----------------
सात ग्राम क पैकेट में लेखनन तैतीस परसेन्ट फिरी  ,
एक पैकेट लूछला दूसर जां चिरी 
फिर स्टेपलर लगै बेर पैकेट सिणण पडौं 
दाज्यू इनार चक्कर में खिम्मू दुकानदार कैं जै सुणण पडौं ||
                    -------------------
तुरतुरे सुरसुरे टेडा मेडा सोया अनाप सनाप 
रंगील चंगील पैकेट खायो पेट खराब 
नानतिन जिद करनी फिर झुकण पडौं 
दाज्यू इनार चक्कर में खिम्मू दुकानदार कैं जै सुणण पडौं ||
                   ---------------------
लोग रैपर खेडि दिनी चिप्स खैबेर 
नालि में बुज लागि जां गन्दगी ढेर 
फिर यो नुकसान सबन कें भुगतण पडौं 
दाज्यू इनार चक्कर में खिम्मू दुकानदार कैं जै सुणण पडौ ||
       #विनोदपन्त_खन्तोली

शनिवार, 24 दिसंबर 2022

कभै पहाड़ उनै धै

आदरणीय श्री तारा दत्त तिवारी जी के श्री मुख से पहाड़ के प्रति प्रेम प्यार का चित्रांकन 🌹🙏🏻🌹

कभै पहाड़ ऊंनां ध्यैं..…

🙏🏻 मुलुककि नरै,  बुड़-बाड़िनक् आशीर्वाद ,दगड़ि़नक् आस् 🙏🏻

🌹🙏कभै पहाड़ ऊनां ध्यैं 🙏🌹

कभै पहाड़ ऊनां ध्यैं ।
हरीं साग-पात,कद्दू-लौकी है रईं,
तुमोर बाट चान-चान आंख नि सै रई,
धिनालिकि बहार आ रै,
पार दाज्यूकि ले भैंसी ब्यारै,
थ्वाड़ दिन त दूध-दै-छां चाखि जानां ध्यैं ।
कभै पहाड़ ऊनां ध्यै ।
बाड़-बोटनमें फल लागि रईं,
हमार त दांतै नि भै खालि चै रईं,
कतू भल काकाड़ाक बोट है रईं,
बाड़ौ में जै बै काकाड़ाक छुन बुकूना ध्यैं ।
कभै पहाड़ ऊना ध्यैं ।
हिसालू-किल्मोड़ी हैरै,
काफलौंकि बहार छा रै,
नींबू-नारिंग-पुलम-खुमानि ,
आ बैर चाखि जानां ध्यैं।
कभै पहाड़ ऊनां ध्यैं ।
हरी-भरी डाना-काना,
खै जानां नींबूसाना,
नानछनाक दगडि़न कैं,
कभै भेटि जानां ध्यैं ।
कभै पहाड़ ऊनां ध्यैं ।
ईजा-बौज्यू ,बुड़-बाड़ी ,
धुंधलि हैगै आँखों की तारी,
फाटि गयीं लुकुड़ सब,
थ्वाड़ नयीं ल्यूनां ध्यैं ।
कभै पहाड़ ऊनां ध्यैं ।
कि?कभै नि ऊनीं याद,
ततु लागि रौ परदेश स्वाद ?
थकि गया हुनाला आ बेर,
थ्वाड़ दिन पटै बिसूनां ध्यैं ।
कभै पहाड़ ऊनां ध्यैं ।
कभै पहाड़ ऊनां ध्यैं ।  

अशोक कुमार पंत 
   (अभ्यासी)

पहाडों क खुशक ठण्ड

कुछ दिनों बटी मौसम ठण्ड ठण्ड हैगो

एक आद हप्त बै तुस्यार ले पडन फैगों

अच्यालू पड़ी बड़ी कडाके ठण्ड छु

अदजगई ठिटुक रौन मे धूमन छु

हव्वक फरफराट तुस्यरैक कडकडाक

आब त बिछुणम बै उठुहू न मन छु

अच्यालू पड़ी बड़ी कडाके ठण्ड छु

हाथ मे ठण्ड पाणि लागि गो त 
तबियत झण्ड छु

खण मे पकौडी समोसा अहम अंग छु
स्वर्ग ले या नर्क ले या लासणेकि चटडि अगर संग छु

टोपी मफ्लर क करनू मे बखान
बनैन जैकिट जो ले गरम हू उ इन दिनों महान

द्वि महिणक ठण्ड हमुकें लागु अनंत
धिरज धरिया मित्रों आघिल आल बसंत

कडाकें ठण्ड दगड भौत भौत धन्यवाद

कविता _देवेन्द्र सती 
पपनैपुरी बटी

गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

श्री मनोज कृष्ण जी(सनातनी हिन्दू व्यास जी)

रिसोर्ट मे शादियां ! 
नई सामाजिक बीमारी  

हम बात करेंगे शादी समारोहो में होने वाली भारी-भरकम व्यवस्थाओं और उसमें खर्च होने वाले अथाह धन राशि के दुरुपयोग की!

सामाजिक भवन अब उपयोग में नहीं लाए जाते हे
शादी समारोह हेतु यह सब बेकार हो चुके हैं
कुछ समय पहले तक शहर के अंदर मैरिज हॉल मैं शादियां होने की परंपरा चली परंतु वह दौर भी अब समाप्ति की ओर है!
अब शहर से दूर महंगे रिसोर्ट में शादीया होने लगी है!

शादी के 2 दिन पूर्व से ही ये रिसोर्ट बुक करा लिया जाते हैं और शादी वाला परिवार वहां शिफ्ट हो जाता है
आगंतुक और मेहमान सीधे वही आते हैं और वहीं से विदा हो जाते हैं।
इतनी दूर होने वाले समारोह में जिनके पास अपने चार पहिया वाहन होते हैं वहीं पहुंच पाते हैं!
और सच मानिए समारोह के मेजबान की दिली इच्छा भी यही होती है कि सिर्फ कार वाले मेहमान ही  रिसेप्शन हॉल में आए!!
और वह निमंत्रण भी उसी श्रेणी के अनुसार देता है 
दो तीन तरह की श्रेणियां आजकल रखी जाने लगी है

किसको सिर्फ लेडीस संगीत में बुलाना है !
किसको सिर्फ रिसेप्शन में बुलाना है !
किसको कॉकटेल पार्टी में बुलाना है !
और किस वीआईपी परिवार को इन सभी कार्यक्रमों में बुलाना है!!
इस आमंत्रण में अपनापन की भावना खत्म हो चुकी है!

सिर्फ मतलब के व्यक्तियों को या परिवारों को आमंत्रित किया जाता है!!
महिला संगीत में पूरे परिवार को नाच गाना सिखाने के लिए महंगे कोरियोग्राफर 10-15 दिन ट्रेनिंग देते हैं!
मेहंदी लगाने के लिए आर्टिस्ट बुलाए जाने लगे हैं!
हल्दी लगाने के लिए भी एक्सपर्ट बुलाए जाते हैं!
ब्यूटी पार्लर को दो-तीन दिन के लिए बुक कर दिया जाता है !
प्रत्येक परिवार अलग-अलग कमरे में ठहरते हैं जिसके कारण दूरदराज से आए बरसों बाद रिश्तेदारों से मिलने की उत्सुकता कहीं खत्म सी हो गई है!!
क्योंकि सब अमीर हो गए हैं पैसे वाले हो गए हैं!
मेल मिलाप और आपसी स्नेह खत्म हो चुका है!
रस्म अदायगी पर मोबाइलो से बुलाये जाने पर कमरों से बाहर निकलते हैं !
सब अपने को एक दूसरे से रईस समझते हैं!
और यही अमीरीयत का दंभ उनके व्यवहार से भी झलकता है !
कहने को तो रिश्तेदार की शादी में आए हुए होते हैं
परंतु अहंकार उनको यहां भी नहीं छोड़ता !
वे अपना अधिकांश समय करीबियों से मिलने के बजाय अपने अपने कमरो में ही गुजार देते हैं!!

विवाह समारोह के मुख्य स्वागत द्वार पर नव दंपत्ति के विवाह पूर्व आलिंगन वाली तस्वीरें, हमारी विकृत हो चुकी संस्कृति पर सीधा तमाचा मारते हुए दिखती हैं!

अंदर एंट्री गेट पर आदम कद  स्क्रीन पर नव दंपति के विवाह पूर्व आउटडोर शूटिंग के दौरान फिल्माए गए फिल्मी तर्ज पर गीत संगीत और नृत्य चल रहे होते हैं!
आशीर्वाद समारोह तो कहीं से भी नहीं लगते है
पूरा परिवार प्रसन्न होता है अपने बच्चों के इन करतूतों पर पास में लगा मंच जहां नव दंपत्ति लाइव गल - बहियाँ करते हुए मदमस्त दोस्तों और मित्रों के साथ अपने परिवार से मिले संस्कारों का प्रदर्शन करते हुए दिखते हैं!

मंच पर वर-वधू के नाम का बैनर लगा हुआ होता है!
अब वर वधू के नाम के आगे कहीं भी चि० और सौ०का० नहीं लिखा जाताक्योंकि अब इन शब्दों का कोई सम्मान बचा ही नहीं
इसलिए अंग्रेजी में लिखे जाने लगे है

हमारी संस्कृति को दूषित करने का बीड़ा एसे ही अति संपन्न वर्ग ने अपने कंधों पर उठाए रखा है

मेरा अपने मध्यमवर्गीय समाज बंधुओं से अनुरोध है 
आपका पैसा है , आपने कमाया है,
आपके घर खुशी का अवसर है खुशियां मनाएं,
पर किसी दूसरे की देखा देखी नही!
कर्ज लेकर अपने और परिवार के मान सम्मान को खत्म मत करिएगा!
जितनी आप में क्षमता है उसी के अनुसार खर्चा करिएगा
4 - 5 घंटे के रिसेप्शन में लोगों की जीवन भर की पूंजी लग जाती है !
और आप कितना ही बेहतर करें 
लोग जब तक रिसेप्शन हॉल में है तब तक आप की तारीफ करेंगे!
और लिफाफा दे कर आपके द्वारा की गई आव भगत की कीमत अदा करके निकल जाएंगे!
मेरा युवा वर्ग से भी अनुरोध है कि 
अपने परिवार की हैसियत से ज्यादा खर्चा करने के लिए अपने परिजनों को मजबूर न करें!

आपके इस महत्वपूर्ण दिन के लिए 
आपके माता-पिता ने कितने समर्पण किए हैं यह आपको खुद माता-पिता बनने के उपरांत ही पता लगेगा!

दिखावे की इस सामाजिक बीमारी को अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित रहने दीजिए!

अपना दांपत्य जीवन सर उठा के, स्वाभिमान के साथ शुरू करिए और खुद को अपने परिवार और अपने समाज के लिए धर्म के लिए सार्थक बनाइए !   
नमो राघवाय🌹🌹

सोमवार, 19 दिसंबर 2022

बूबू

बूबू 
बूबू अब सौ साल के होंगे 
सारा जीवन पहाड में रहे  
लाल चावल का भात 
भाटों की चुटकाँणी  
तम्बाकू की फर्सी 
याद करते हैं 
वो अब हल्द्वानी में रहते हैं, रोज़ दोपहर वो छत पर जाते हैं 
पहाडों की उँची- और उँची शृंखलाओं को ताकते हैं 
पूछा, बूबू क्या देखतो हो 
अरे , वो जो पहाड है न,
वहाँ था रे चार नाली का खेत 
खूब चावल , भट, मूली ,गढेरी होने वाली ठहरी ...
 पूछा, यहाँ से कहाँ दिखेगा बूबू !
क्यों रे, वहाँ से हम देखते थे हल्द्वानी को... 
बूबू वहाँ से सब साफ़-साफ़ दिखता है, हवा जो हुई साफ़...
कैसा समय आ गया रे ,
कौन आता था यहाँ भाभर में घाम खाने,
बुखार और उमस में मरने को...
 ये हल्द्वानी पहाड में क्यों नहीं रे नतिया,
पहाड का आदमी पहाड में रहता...
अब क्या जवाब दूँ बूबू को कि पहाड तो भेंट चढ़ गया निकम्मे हाकिमों के हाथ..
ये जो  टूटा हुआ पहाड है, बिखरा पड़ा है मैदानों में...
अब समेटे तो समेटे कौन,
जिनको समेटना है, वो खुद मैदानों में बिखरे पडे हैं।
बूबू 
बूबू अब सौ साल के होंगे 
सारा जीवन पहाड में रहे  
लाल चावल का भात 
भाटों की चुटकाँणी  
तम्बाकू की फर्सी 
याद करते हैं 
वो अब हल्द्वानी में रहते हैं, रोज़ दोपहर वो छत पर जाते हैं 
पहाडों की उँची- और उँची शृंखलाओं को ताकते हैं 
पूछा, बूबू क्या देखतो हो 
अरे , वो जो पहाड है न,
वहाँ था रे चार नाली का खेत 
खूब चावल , भट, मूली ,गढेरी होने वाली ठहरी ...
 पूछा, यहाँ से कहाँ दिखेगा बूबू !
क्यों रे, वहाँ से हम देखते थे हल्द्वानी को... 
बूबू वहाँ से सब साफ़-साफ़ दिखता है, हवा जो हुई साफ़...
कैसा समय आ गया रे ,
कौन आता था यहाँ भाभर में घाम खाने,
बुखार और उमस में मरने को...
 ये हल्द्वानी पहाड में क्यों नहीं रे नतिया,
पहाड का आदमी पहाड में रहता...
अब क्या जवाब दूँ बूबू को कि पहाड तो भेंट चढ़ गया निकम्मे हाकिमों के हाथ..
ये जो  टूटा हुआ पहाड है, बिखरा पड़ा है मैदानों में...
अब समेटे तो समेटे कौन,
जिनको समेटना है, वो खुद मैदानों में बिखरे पडे हैं।

रविवार, 18 दिसंबर 2022

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

श्रीमान महेश रौतेला जी की कविता

हिमाला तु साजि है जैयै
दैब्त यैंला,दैब्त नैह जैंला
हिमाला तु साजि है रैयै।

य बद्री य केदार छु
य जागेश्वर य बागेश्वर छु,
यां सोर घाटि,यां गेवाड़ छु
द्यब्तु कि भूमि सिरांणें छु।

पांडवों कि बात यां कनि
स्वर्ग जांणि बा ट यां बतानि,
हरि सुकि घा काटण में
घस्यार यां गीत भा ल गानि।

कतु दिन मैंल बिताइ
कतु दिन तमूल बिताइ,
निखरि तुम लै ग या
निखरि मैं लै ग य।

हिमाला तु बासि झन हैयै
नक भल चलते रौं,
सड़ि-पड़ि बगि जां
हिमाला तु बासि झन हैयै।
          ****
* महेश रौतेला

अंकिता पंत जी की कविता

दो जोड़ी उम्मीद 

एक दिन ऐसा भी वक्त आयेगा 
जो तेरी सारी असफलताओं से टकराकर 
तेरे सारे सपने साकार  कर जायेगा 

उसे लोग बेशक किस्मत,चमत्कार जैसे नाम देंगे
पर तेरे पीछे खड़े वो दो जोड़ी हाथ कहेंगे 
हमें विश्वास था ,तू करके दिखायेगा 

सारी दुनिया खिलाफ होगी 
लोगों का स्नेह भी कम नजर आयेगा 
मगर वो दो जोड़ी आंखें कहेंगी 
हमें अहसास था,हमारा बच्चा सपना सच कर जायेगा 

कोई रास्ता भले रोक ले
संदेह भरी नजर से भले देख ले 
मगर वो दो जोड़ी पैर मजबूती देकर कहेंगे
हमें गर्व है था तुझ पर तब भी 
है आज भी, तू सच्चाई महसूस करायेगा
तू सपना साकार कर जायेगा।
       अंकिता पंत ✍✍

तारा पाठक जी की कविता

नदी को गाड़ बेशक बोल लेना
लेकिन गाड़ को नदी मत बोलना

क्योंकि गाड़ नदी बन सकती है 
ऊंचे पहाड़ों से बह कर

नदी गाड़ नहीं बन सकती
 मैदानों में रह कर 

गाड़ चट्टानों में सिर टकराकर
भी जीवंत है बेगवान है

नदी समतल में भी
शिथिल सी बेजान है

गाड़ का अपना सुसाट
 वाला संगीत है तराण है

नदी का शिशकियों वाला
अधमरा सा पराण है

गाड़ ही गंगाजल 
नदी तक पहुंचाती है

बड़प्पन भी ऐसा कि _
अपने को मिटा नदी में समा जाती है

गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

मन और पानी

मन और पानी
मन भी पानी जैसा ही है, पानी फर्श पर गिर जाए तो कहीं भी चला जाता है। मन भी चंचल है।कभी भी कहीं भी चला जाता है।मन को हमेशा सतसंग और भजन-सिमरन के साथ जोडे
रखना है।जैसे पानी को फ्रिज में रखने से ठंडा रहता है और आॅईस बॉक्स मे रखने से सिमट कर बर्फ में परिवर्तित हो जाता है।वैसे ही मन फ्रिज रूपी सतसंग में ठंडा और शांत रहता है और भजन-सिमरन करने से  सिमट कर एक हो कर परमात्मा में लीन हो जाता है।अगर बर्फ को बाहर धूप में रखा तो वह पिघल कर पानी होकर
इधर-उधर होकर बिखर जाता है।हम लोग भी माया रूपी धूप में सतसंग से दूर होकर बिखर जायेगे।तो हमें हमेशा सतसंग और भजन-सिमरन से खुद को जोड कर रखना है🙏🙏🙏🙏

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

अशोक कुमार पंत जी की कविता

😟 पढ़ीं - लेखीं बिरोजगार 😟

आर गयूं  पार गयूं...
गाड़ - गध्यार गयूं..
इसीकैं डोई रयूं..
सबहूं बौई रयूं..
    कि करूं हो तौई रयूं..
 दाज्यू..मीं बिरोजगार भयूं ।

यां चां.… कभै वां...
दौड़ि जां.. धां धां...
आजि तलक त मिली नां..
नौकरी ,  हमुंहूं छई कां... 
     ज्ञानोक् त मीं भंडार भयूं.….
  दाज्यू.. मीं बिरोजगार भयूं ।

एकल कौ एक काम कर..
कर्जाक् थ्वाड़ इंतजाम कर.
नानीं... ले के दुकान कर..
द्वी डबल आला घर ।
       कर्ज लीबेर कर्जदार भयूं ..
      दाज्यू... मीं बिरोजगार भयूं ।

कर्जाक आगोश में..
डुबि गयूं होश नैं..
मन चित में जोश नैं..
कैकैं  द्यूं दोष मैं..
        तिरसंकु जस लटकि गयूं.…
     दाज्यू .. मीं बिरोजगार भयूं ।

आन नैं के मान नैं..
कैं ले जाऊंत के सम्मान नैं..
ठुलि के पछ्याण नैं..
म्यार तर क्वे चाण नैं ..
      अटकि जस मझधार गयूं..
    दाज्यू.. मीं बिरोजगार भयूं ।

म्यार जतू ले यार छन्...
सब्बै दुकानदार छन्..
माँख ले नीं ऊंन दुकान पन्..
क्याले चुकूं ब्याज धन् ।
    मीं दुनीं में भार भयूं..
    दाज्यू ...मीं बिरोजगार भयूं ।

अशोक कुमार पंत
  ( अभ्यासी )