सिटोल चारि
_२०.०२.२०२४ ________________
रोज-रोज सितड़ बखत
मैं यस सोचनू छूं
कि रत्ती-रत्ती उठजूल,
पर सोच!सोचन तलक लै
सीमित रेईं जां।
सूर्ज दैप्त ले आंजी-कल
बादल पछिल घोप्टिल जां।।
अन्यार समझ बेर,मै ले
दुवार बार कांम्ला भितेर लुकि जां।।
आजकलां जाड़ जस दिन
हांड़ मासन को हाड़नी,
चांकल-बाकल फुदकीने मैंस के लै
आलसी बनै डालनी।।
फिर मैं म्यं तो म्यों भयूं
रोज राति मां सितड़ं बखत
आपुण दगड़ झुट्ट वाद कर बैर
रत्ती मा बैर तलक बिस्तरम्
सितने रूंनू।।
फिर आपि-आप सिटोल जस
बोलते रुनूं,
भोल बटि !बैर तलक झन सितुल
स्याव जस बुद्धि-फुर्ति जगै बैर.
अपुण धर्मक पालन करुल।।।
म्यर मन ले रोज-रोज,
सिटोले चारि बदली जां।।
झन बनिये रे मनखि तुम सिटोल चारि,
नतर आलस्यक है जालि बिमारी।।
मंजुला पांडेय
पिथौरगढ़ बटि
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