रविवार, 22 अगस्त 2021

मै बाखली हू

पहाड़ के पलायन पर सुन्दर कविता

मैंने देखा है अपने आँगन में
तेरे दादा और परदादा को भी,
तुतलाते,अलमस्त बचपन बिताते,
तख्ती पे घोटा लगाते,कलम बनाते....
मुस्कराते,गुनगुनाते और खिलखिलाते,
जब अ से अनार सीखते थे तेरे बूबू.....
       मैं  तब भी थी , मैं आज भी हूँ,

    मैं बाखली हूँ........

खेले हैं मैंने होली के रंग ,तेरे पुरखों के संग ,
ना जाने कितनी दिवालियों में सजी हूँ,
सुनी है मैंने वो "काले-कव्वा काले " की पुकार
जब घूघूते की माला ले के दौड़ते थे तेरे बाज्यू...
           मैं तब भी थी , मैं आज भी हूँ,
            मैं बाखली हूँ......
गवाह हूँ मैं कितनी डोलियों की याद नहीं,
कितनी बेटियों की विदाई में बहे आंसू मेरे
कितनी बहुवों की द्वारपूजा की साक्षी हूँ....
जब चाँद सी सजके आई थी तेरी ईजा ......
              मैं तब भी थी ,मैं आज भी हूँ,
               मैं बाखली हूँ..........
फिर तेरे नामकरण की वो दावत
कितनी लम्बी पंगतों को जिमाया मैंने....
तेरा बचपन, तेरी शिक्षा,तेरा संघर्ष,
कितना फूला था मेरा सीना ,जब आया तू
पहली बार मेरे आँगन में ठुल सैप बनके
                 मैं तब भी थी , मैं आज भी हूँ...
                  मैं बाखली हूँ......
पर शायद मेरा आँगन छोटा हो गया ,
तेरे सपनो  के लम्बे सफर के लिए...
तुझे पूरा हक है, जीने का नई जिंदगी।
शायद समय की दौड़ में मैं ही पिछड़ गई हूँ...
याद है वो भी जब आखिरी बार कांपते हाथों से 
सांकल चड़ाई थी तूने..................
            मैं तब भी थी,मैं आज भी हूँ,
            मैं बाखली हूँ..............
अब शायद और ना झेल पाऊं वक्त की मार,
अकेलेपन ने हिला दिया है मेरी बुनियादों को....
अब तो दरवाजों पे लगे तालों पे भी जंक आ गया
पर मेरा रिश्ता तेरी बागुड़ी से आज भी वही है।
 लेके खड़ी  मीठी यादें,ढेरों आशीर्वाद......
                   मैं तब भी थी ,मैं आज भी हूँ,
                    मैं बाखली हूँ.........